चिरैया

कविता मंगल विमर्श

मेरे आँगन में बैठी,

एक चिरैया ।

चोंच में था दाना,

पानी का न था नामोनिशान ।

आँखें गोल- गोल घुमा

ताकती थी आसमाँ,

बूँद पाने के लिए ।

साँसों को थी ज़रूरत

हसरते जीने की ,

थी तृष्णा परवाज़ पर भारी,

अक्स पाने के लिए ।

रवि खड़ा कर धारण

विकराल रूप अपना ,

आग के गोलों से,

छलनी था उसका सीना ।

तभी –

बिना आहट के मैंने,

पात्र जल का खिसका दिया ।

एक बार तो पंख फड़फड़ाए,

पर देख

उम्मीद जागी ,

तृप्ति का पहला कदम ले,

उसकी ओर भागी ।

घूँट- घूँट भर जल

ले चोंच में ,

फिर ग्रीवा भी डुबाने लगी ,

और फिर शनै- शनै,

पंख भी गीले करने लगी ।

आवरण के पीछे से

खेल सारा देखती रही ,

इस मदहोश दुनिया का

भविष्य खोजती रही ।

आज ये चिरैया

कल अपनी बारी है।

बूँद – बूँद को तरसेगी 

ये दुनिया कल सारी है ।

क्यूँ नहीं चेताता औरों को,

तूने क्या मन में ठानी है ?

तू कर समझौता प्रकृति से,

दोहन से इसे बचा ले ।

खेत- खलिहान घर -घर पौधा,

रोपित कर धरा बचा ले ।

        नीलम कुमार नील