जयशंकर प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीय चेतना को प्रभावित करने वाले कारक

मंगल विमर्श लेख

आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रारंभ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ ही होता है| जैसे जैसे देश के लोगों में राष्ट्रीयता का विकास होता है ठीक वैसे वैसे हिंदी साहित्य का विकास आरंभ होता है । जिस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रणेता राजा राम मोहन राय हैं,वैसे ही हिंदी साहित्य के प्रणेता भारतेंदु हरिश्चंद्र जी हैं ।जिस प्रकार राजा राममोहन राय भारतीयों में भारतीयता की भावना का सूत्रपात करते हैं ठीक उसी प्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र अपने नाटकों में भारत और भारत की दुर्दशा को दिखाते हैं जैसे भारत दुर्दशा नाटक में दिखाया गया है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दो समानांतर रेखाएं भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तथा आधुनिक हिन्दी साहित्य एक साथ विकसित हो रही थीं। भारतेंदु युग में नाटक आरम्भ भी हुए और तेज़ी से फले फूले भी। परंतु द्विवेदी युग में नाटकों का ह्रास हुआ । अपनी शैशवावस्था से ही नाटकों को कठिन चुनौती का सामना करना पड़ा भारतेंदु जी का हिन्दी साहित्य में महान योगदान इसलिए भी है क्योंकि उन्होंने इन चुनौतियों के होते हुए भी नाटकों को आरंभ किया तथा उनके विकास में योगदान दिया। द्विवेदी युग के बाद छायावाद के कवियों ,साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण युग का सूत्रपात किया । इसी छायावाद युग के एक स्तंभ हैं श्री जयशंकर प्रसाद जी । प्रसाद जी ने जिस समय साहित्य में प्रवेश किया उस समय के भारतीय समाज को भी समझना आवश्यक है।
कूट शब्द – कामायनी चंद्रगुप्त स्कन्धगुप्त भारतेन्दु युग द्विवेदी युग छायावादी युग
विषय वस्तु
अंग्रेजों ने भारतीयों को मानसिक तौर पर ग़ुलाम बनाने के लिए भारतीय पुरातन साहित्य का सहारा लिया है इस क्रम में तमाम भारतीय ग्रंथों का अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया तथा उन संदर्भों को विशेष महत्व दिया गया जिससे भारतीयों के मन में जातीय हीनता का बीज रोपा जा सके। लोगों को यह समझाने का प्रयास किया गया कि भारत के लोग हमेशा से शासित होते आये हैं ।समय समय पर भारत पर विदेशी आक्रमण होते रहे हैं तथा विदेशी ही भारत पर शासन करते आए हैं। इसका प्रभाव भी भारतीयों पर पड़ा एक तरह से मानसिक रूप से ग़ुलाम बनाया जाने लगा ।ठीक ऐसे ही समय श्री जयशंकर प्रसाद का भारतीय साहित्य में उद्भव होता है। जयशंकर प्रसाद जी अपने नाटकों के द्वारा यह दिखाते हैं कि अंग्रेजों ने जो इतिहास हमें दिखाया है वह सत्य नहीं है बल्कि भारत भूमि महान साम्राज्यों को जन्म देने वाली रही है जैसे मौर्य साम्राज्य, जिसने सेल्यूकस निकेटर को हराया तथा भारत की सीमा का विस्तार किया इसी को विषयवस्तु बनाकर प्रसाद जी ने अपने नाटक लिखे ।वैसे तो श्री जयशंकर प्रसाद जी ने अपने समस्त साहित्य मैं मानव का विकास तथा कल्याण को ही प्रधानता दी है जैसे -कामायनी कि यह निम्न पंक्तियाँ –
अपने में सब कुछ भरकर कैसे व्यक्ति विकास करेगा,
यह एकांत स्वार्थ भीषण है, अपना नाश़ करेगा ।
औरों को हसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ,
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ ।

शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त,
विकल बिखरे हों निरुपाय।
समन्वय उनका करे समस्त,
विजयी मानवता हो जाए।

परंतु पराधीन व्यक्ति न तो ख़ुद सुखी होगा न किसी को सुख दे सकता है। यही कारण है कि प्रसाद जी ने अपने नाटकों में स्वतंत्रता को मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक माना है इसी का निर्वाह प्रसाद जी ने अपने महान नाटकों में किया है जैसे चंद्रगुप्त ,स्कंदगुप्त ध्रुवस्वामिनी आदि ।
1899 में अबीसीनिया ने इटली को तथा 1904 में जापान ने रूस को पराजित कर यूरोपीय अजेयता के भ्रम को खंडित कर एशियाई पराधीन देशों में राष्ट्रीय चेतना को बल दिया , हीनता की भावना छूट चली तथा अपनी सांस्कृतिक विरासत के महत्व को बल मिला ।यह इस समय का एक विलक्षण तथ्य है कि एक ओर तो विश्व बंधुत्व की भावना का पोषण किया जा रहा था और दूसरी ओर राष्ट्रीय गौरव को पुष्ट करते हुए पश्चिमी जीवन पद्धति के प्रति तिरस्कार की भावना भी विकसित की जा रही थी । सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर दो प्रकार की चेतना भारत में कार्यरत थीं ।एक ओर भारतीय सांस्कृतिक उपादानों के प्रति गहरी निष्ठा सक्रिय थी तो दूसरी ओर शिक्षित मध्यम वर्ग के उदय के साथ यूरोपीय विचारधारा के प्रति आकर्षण बढ़ा तथा यूरोपीय जीवन दर्शन और संस्कृति के प्रति झुकाव को लेकर ब्रह्मसमाज विशेषकर उसके प्रमुख नेता सक्रिय हुए।
एक अन्य विशेषता और उल्लेखनीय है जोकि सांस्कृतिक तथा धार्मिक गतिविधियों की नई दिशा की सूचना देती है ।ब्रह्म समाज प्रार्थना समाज आर्य समाज सभी सम्मलित आराधना तथा सामूहिक भावना की पोषक हैं । धर्म को मात्र भावात्मक तथा बिना जाने विचारे माने जाने वाली वस्तु न मानकर बुद्धिग्राह्य तथा तर्कसंगत माना गया ,ना की उसको कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को विशेषाधिकार देने वाला स्वीकार किया गया । इस प्रकार धर्म को जनसामान्य के लिए पूर्ण सुलभ तथा निजी वस्तु बनाने का प्रयास किया गया ।मानवतावादी विचारधारा को इस काल के विशेष चिंतन के रूप में लिया जा सकता है ।पश्चिमी साहित्य तथा संस्कृति के मानवतावादी तत्वों ने भारत में प्रवेश किया । भारतीय संस्कृति में निहित मानवतावादी तत्वों पर पुनः साग्रहदृष्टिपात की प्रवृत्ति भी प्रबल हुई । विवेकानंद ने घोषणा की कि मैं ऐसे धर्म और ईश्वर पर विश्वास नहीं करता जो विधवा के आँसू न पोंछ सके तथा अनाथ के लिए रोटी का टुकड़ा न दे सके तथा जनसामान्य की उपेक्षा ही राष्ट्रीय अपराध है तथा यही हमारे पतन का कारण है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रसाद जी के जन्म एवं विकास के काल में भारत में राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में बहुत तीव्रता आयी हुई थी । प्रसाद जी के जन्म के पूर्व ही यह सक्रियता बहुत बढ़ चली थी प्रसाद जी के संवेदनशील व्यक्तित्व पर इन गतिविधियों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था तथापि प्रसाद जी का व्यक्तित्व मूलतः अंतर्मुखी तथा अध्ययनशील एवं चिंतनशील था। साहित्यिक गतिविधियों से वे अधिक प्रभावित हुए । उनके जन्म की पूर्व ही हिंदी में आधुनिक तत्वों को लेकर भारतेन्दु युग आ गया था भारतेंदु युग के संस्कार प्रसाद जी के साहित्य में बहुत अधिक दृष्टिगोचर होते हैं।
भारतेन्दु युग काव्य में भक्तिकाल की तन्मयता तथा रीतिकाल की कलात्मक अभिव्यंजना को एक साथ लेकर चला । सामाजिक और राजनीतिक जीवन के यथार्थ के प्रति भारतेन्दु युगीन लेखक जागरूक थे परिणामस्वरूप यथार्थ चेतना भी इनके काव्य में पर्याप्त विकसित दिखाई देती है। तथापि यथार्थ को अभिव्यक्ति गद्द के द्वारा दी जा सकती थी। हिंदी साहित्य में गद्द साहित्य का विकास सही अर्थों में इसी समय हुआ, हिंदी गद्य आधुनिक यथार्थवादी चेतना का संवहन कर रही थी तथा पद्य अधिकतर पूर्ववर्ती परंपराओं का अनुगामी था । भाषा की दृष्टि से भी पद्य परंपरा अनुगामी ही रहा । खड़ी बोली में गद्द की रचना अवश्य की गयी किन्तु पद्य में प्रयोग रूप में खड़ी बोली के कतिपय प्रयोग कर भारतेन्दु ने ब्रज भाषा को ही उपयुक्त माना । प्रसाद जी के प्रारम्भिक पद्य में भी ब्रज भाषा के ही व्यवहार हुए हैं जिससे स्पष्ट है कि वे भारतेन्दु युगीन प्रभाव से बाहर न थे। भारतेन्दु युग (1900तक )में हिंदी गद्य का विकास सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है । नाटक एवं निबंध बहुत बड़ी संख्या में लिखे गए इनमें इन लेखकों के प्रबुद्ध एवं प्रगतिशील व्यक्तित्व प्रकट हुए । भाषा व्याकरण की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण थी किंतु अभिव्यक्ति इतनी समर्थ थी कि पूर्ववर्ती युगों में अधिक व्यवस्थित और सम्पन्न भाषा लेकर भी साहित्यकार उसके समक्ष दुर्बल दिखाई पड़ते हैं। भारतेंदु साहित्य में राष्ट्रीयता का जो स्वरूप उभरा वह विरोधाभास लिए हुए हैं। अंग्रेज़ी राज व्यवस्था न्याय पद्धति नवीन शिक्षा प्रणाली आदि के प्रति आदर प्रकट करते हुए भी साहित्यकार ब्रिटिश अर्थनीति के प्रति न केवल शंकाकुल है बल्कि राजनीतिक नेताओं की अपेक्षा अधिक साहस और दृढ़ता से विरोधी बनकर खड़े हुए हैं।साहित्य में मध्यवर्ग की प्रवृति को अभिव्यक्ति मिली। भारतेन्दु युग के अंतिम चरण में यह साहित्यकार शासन तंत्र का कट्टर आलोचक हो जाता है।भारतेन्दु युगीन गद्य साहित्य की एक अन्य उल्लेखनीय उपलब्धि ऐतिहासिक नाटकों में मिलती है ।संख्या में ऐतिहासिक नाटक अन्य प्रकार के नाटकों से बहुत कम हैं किन्तु सामाजिक यथार्थवादी नाटकों तथा निबंधों के समान महत्व के हैं। स्तर की दृष्टि से नाटक सर्वोत्कृष्ट साहित्यिक उपलब्धि माने जा सकते हैं । प्रसाद के नाटकों के अध्ययन के समय तो इन नाटकों को विशेष ध्यान से देखना आवश्यक है । भारतेन्दु बाबू ने “नीलदेवी“लिखकरऐतिहासिकनाटकोंकीधाराकोपरिवर्तितकरअपनेसहयोगियोंकोप्रेरणादीकिभारतवर्षमेंअबऐसेनाटकोंकीविशेषआवश्यकताहैजोआर्यसंतानोंकोअपनेपूर्वपुरुषोंकागौरवस्मरणकरावें ( क्योंकि ) “क़दरपियाकिठुमरी“सुनतेसुनतेआर्योंमेंक्लीवपनाअबचरमसीमातकपहुँचगयाहै।अबआर्योंकोइसबातकास्मरणदिलानाचाहिएकिउनकेपूर्वपुरुषकैसेउदारकैसेवीरधीरदृढ़अध्यवसायीथेऔरउनकीपत्नी पति वृत धर्म और कुल मर्यादा की रक्षा हेतु अपने बहुमूल्य जीवन को कैसे त्याग देती हैं । “महारानी पद्मावती “मेंनाटककार“बाबूराधाकृष्णदास“तथा“दोशब्द“लेखक“भारतेंदुहरिश्चंद्र“ऐतिहासिकनाटकोंकीरचनाकेप्रेरकतत्वकोअभिव्यक्तकरतेहैं। भारतेन्दु युगीन नाट्य परम्परा को विकसित करने वाले नाटककार श्री जयशंकर प्रसाद के नाटकों का मूल आधार यही तत्व है । अवश्य ही ऐतिहासिक तथ्यों एवं व्यक्तियों से अधिक उन्होंने सांस्कृतिक आदर्शों को महत्व दिया तथापि औदात्य के प्रति झुकाव और महत्व के प्रति आकर्षण तथा आदर्श भावना के स्वरूप वही हैं । भारतेंदु युग कल्पना की कामनीय शक्ति भावनाओं के आवेश और चमत्कारपूर्ण गद्द रचना का युग है । गध के विविध रूप नाटक , कहानी , उपन्यास अथवा निबंध एक साथ इस युग के लेखकों ने रचे । भारतेंदु जी के बाद हिंदी साहित्य के द्विवेदी युग का आरंभ हुआ। द्विवेदी युग में योजनाबद्ध तथा अनुशासित कृतित्व हिंदी साहित्य को मिला। द्विवेदी काल का साहित्य सबसे पहले खड़ी बोली का आग्रह करके चला । गद्य और पद्य की भाषा एक -एक करके जनता तक नवीन युग का संदेश पहुँचाना ही उनका उद्देश्य था । साहित्यिक सामग्री को समाजव्यापी बनाने का ध्येय लेकर लोग निकले थे। द्विवेदी युग में कविता का चोला बदल गया।
भारतेन्दु युगीन संस्कार प्रसाद जी ने ग्रहण किया । काशी जो कि भारतेंदु युगीन साहित्य का केंद्र था प्रसाद का जन्मस्थान था। प्रसाद जी ने भारतेन्दु युग में ही साहित्य संस्कार ग्रहण किया। द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता और आदेशानुसार साहित्यिक परेड में योगदान देना उनके व्यक्तित्व के सर्वथा विपरीत था , तब भी द्विवेदी युगीन सौदेश्यता और आस्था संपन्न संकल्पनात्मक क्रियाशीलता ने उन पर गहरा प्रभाव डाला जिसको उन्होंने अपने ढंग से ग्रहण किया । आत्म अनुशासन को बाहर से किए गए अनुशासन के विपरीत उन्होंने स्वीकार किया । उनका व्यक्तित्व विशेषकर उत्तरकालीन रचनाओं में अनुशासित व्यक्तित्व है। आत्मानुशासन के अभाव में चंद्रगुप्त अथवा कामायनी जैसे महाकाव्य की रचना असंभव थी । सम सामयिक रचना के स्थान पर चिरंतन तत्वों के पूर्ण कृतित्व से हिन्दी साहित्य का भंडार भरा पड़ा है। इस वैभव संचन में प्रसाद जी के कार्य में सहयोगी अन्य प्रतिभाशाली रचनाकार मिल गए परिणामस्वरूप छायावाद युग ने द्विवेदी युग का स्थान ग्रहण किया।
छायावाद युग के संबंध में बहुत प्रकार के मत व्यक्त हुए हैं द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मक नीरसता तथा स्थूलता से विद्रोह इसे कहा गया । छायावाद के संबंध में दिए गए इस निर्णय पर मतैक्य कदापि न हो किन्तु यह निश्चित है कि प्रसाद जी का व्यक्तित्व विद्रोह कर एक नया आंदोलन को चलाने का बिलकुल न था। छायावादी रचनाकार मूलतः अंतर्मुखी वृत्ति के लेखक थे उनके आत्मानुभूति प्रधान कृतित्व से प्रेरणा ग्रहण कर अनेक रचनाकार स्वच्छंद रचना में प्रवृत्त हुए तथापि इसके लिए प्रसाद जी ने जनमत बनाने तथा आंदोलन का कोई प्रयास नहीं किया । वे परम्परा के प्रति निष्ठावान थे ,मान्य नियमों की अवहेलना जानबूझकर करने का संकल्प उनका न था , जो नियम उनको बाधक लगे उनको छोड़कर नए नियम उन्होंने स्वीकार कर लिए ।कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि प्रसाद जी ने अपने नाटकों में विद्रोही पात्रों को प्रमुख स्थान तो दिया परंतु अपने व्यक्तित्व में प्रसाद जी विद्रोही न थे , उनमें बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाँति आत्माभिव्यक्ति का आवेग तथा उत्कण्ठा है । प्रसाद जी के साहित्य का अध्ययन करते समय विशेष कर नाटकों के अध्ययन में भारतेन्दु युगीन काव्य संस्कारों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
निष्कर्ष- इस प्रकार हम देखते हैं कि श्री जयशंकर प्रसाद जी के नाटकों पर तत्कालीन समाज का व्यापक प्रभाव है । प्रसाद जी ने अपने नाटकों में तत्कालीन समाज की दशा व दिशा दिखाने का प्रयास किया है । श्री प्रसाद जी ने जिस समय नाटक लिखना आरंभ किया उस समय नाटक अपनी शैशवावस्था में ही थे । भारतेन्दु बाबू ने अवश्य इसमें अमूल्य योगदान दिया परंतु उनके बाद ऐसा कोई पुरोधा न हुआ जो भारतेंदु जी का उत्तराधिकारी बनता । जब तक प्रसाद जी हिंदी गद्य साहित्य में प्रवेश करते नाटक विधा को पर्याप्त हानि पहुँचाई जा चुकी थी। इस कारण भी जयशंकर प्रसाद महत्वपूर्ण है कि उन्होंने पारसी रंग नाट्य शालाओं से जम कर लोहा लिया जिनका उद्देश्य केवल मनोरंजन हुआ करता था । ऐसे में प्रसाद जी के सामने यह एक महत्वपूर्ण चुनौती थी कि कैसे जनता को काल्पनिक नाटकों के द्वारा तत्कालीन समाज की वस्तु स्थिति का ज्ञान कराया जाए तथा लोगों को अपनी संस्कृति ,धर्म ,दर्शन आदि पर हीनता की जगह गर्व महसूस कराया जाए जिसमें प्रसाद जी पूर्णतः सफल हुए । रंग मंच पर नाटकीयता की दृष्टि से उन पर अनावश्यक आरोप लगाए जाते हैं कि प्रसाद जी के नाटक रंगमंच पर सफल नहीं है। उनके नाटकों का प्रस्तुतीकरण रंग मंच पर संभव नहीं हैं । परन्तु ये आरोप निराधार हैं प्रसाद जी अपने उद्देश्य में पूर्णता सफल हुए , उनका उद्देश्य रंगमंच न होकर जनमानस को जागरुक करना था । उनके नाटकों की प्रासंगिकता उस समय के समाज के लिए भी थी और आज इतने वर्षों बाद भी जब हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तब भी है।

संदर्भ सामग्री-
प्रसाद का नाट्य साहित्य- डॉक्टर भानु देव शुक्ला
आधुनिक गद्य साहित्य का इतिहास – इग्नू
कामायनी – जयशंकर प्रसाद
प्रसाद साहित्य कोश – सुरेश गौतम , बीना गौतम दिल्ली विश्वविद्यालय
समकालीन हिन्दी नाटकीय काव्य चेतना – डॉक्टर चंद्रशेखर
हिंदी साहित्य 20वीं शताब्दी – नन्द दुलारे बाजपेयी
भारतेंदु हरिश्चंद्र , मदन गोपाल द्विवेदी

महाराजा अग्रसेन हिमालयन गढ़वाल विश्वविद्यालय सहायक प्राध्यापक
आदित्य कुमार मिश्रा