मंच वर्सेस शाहित्य-डॉ कीर्ति काले

लेख

————————जरूरत से ज्यादा छप चुकने के बाद भी श्रोताओं की तालियाँ और वाहवाही सुनने का चाव इतना बलिष्ठ है कि माने या ना माने लेकिन किसी हद तक ये प्रत्येक छपने वाले कवि का भी अभीष्ट है।मंचीय कवियों को देखते ही नाक भौंह सिकोड़ने वाले छपाऊ कवि ने मानदेय का लिफाफा दोगुना करके आयोजन समिति को लौटाने का वादा किया तब जाकर मुहल्ला स्तरीय कवि सम्मेलन में काव्यपाठ करने का आमंत्रण लिया। जब से आमंत्रण लिया है तभी से सोच रहे हैं कि सम्मेलन में क्या सुनाएँ?एक एक मिनिट की पाँच हजार कविताएँ अभी तक उनकी लेखनी से नि:सृत हो चुकी हैं और निरन्तर नि:सृत होती जा रही हैं । उस पर तारीफ यह कि इतनी विपुल साहित्य सर्जना करने के बावजूद उनकी लेखनी अभी चुकी नहीं है । ये अलग बात है कि जिन- जिन पत्र- पत्रिकाओं में वो छपीं उनमें से अधिकांश चुक चुकी हैं।विशाल साहित्यिक भण्डार में से तय करना बहुत कठिन है कि किसे छोड़ें और किसे चुनें। कौन सी कविता प्रस्तुत करें जिसे श्रोता चाव से सुनें।सोते जागते, खाते पीते, उठते बैठते मस्तिष्क यही उधेड़ उधेड़कर बुन रहा है कि ऐसी कौन सी कविता कवि सम्मेलन में प्रस्तुत की जाए जिसे सुनाने के बाद तालियों की गड़गड़ाहट से आसमान हिल जाए, बाकी सारे कवियों की मंचीयता धूल में मिल जाए।वन्स मोर का शोर इस कदर छाए कि भविष्य में होने वाले सारे कवि सम्मेलनों की डोर उन्हीं के हाथ में आए।पहले जब- जब भी कवि सम्मेलन का आमंत्रण लिया है तब- तब सड़े हुए अंडे टमाटरों ने पूरी तबीयत के साथ उनका स्वागत किया है।इस बार ऐसा न हो इस बात का रख रहे हैं पूरा ध्यानइसीलिए छेड़ रखा है एक एक मिनिट की पाँच कविताएँ छाँटकर उन्हें कण्ठस्थ करने का महा अभियान।वे वस्तुत: वस्तुवादी कवि हैं। जो -जो वस्तुएँ उनके सम्पर्क में आती हैं वो- वो उनकी कविताओं के विषय बन जाती हैं। जूते,चप्पल,मोजे से लेकर चश्मा,छाता,छड़ी और अधो वस्त्रों तक पर उन्होंने दृष्टि गड़ाई है ।इसीलिए इतने अधिकारपूर्वक प्रचुर मात्रा में उन पर लेखनी चलायी है। चार लाइन की कविता की चालीस पेज की समीक्षा लिखवाकर छपवायी । लेकिन घोर शाहित्यिकता देखिए कि चार लाइनों में से आधी लाइन भी उन्हें याद नहीं हो पायी । उनके जैसे पहुँचे हुए शाहित्यवादियों का मत है कि जो कविता याद रह जाए वो क्या कविता ?और जो बिना समझाए समझ में आ जाए वो क्या शाहित्य ?लेकिन इस बार झोल है।कवि सम्मेलन के निमंत्रण की डील करने के पश्चात स्थिति अत्यधिक डांवाडोल है विकट समस्या है। चार लाइनें याद करना भी उनके लिए बहुत बड़ी तपस्या है।उनकी आज तक की साधना का यही सार है कि जिस कवि द्वारा लिखी गई कविता पाठक,श्रोता तो क्या स्वयं कवि तक को याद न रहे उसे ही‌ सौ फीसदी टंच शाहित्यकार कहलाने का अधिकार है।लेकिन मंच पर जाना है तो उसके थोड़े बहुत कायदे कानून तो निभाना है।मंचीय कवि कई किलोमीटर लम्बी कविताएँ भी कैसे पटर पटर बोल देते हैं और यहाँ एक लाइन बोलने में दस- दस बार पॉज लेते हैं।कविताओं के बाद नम्बर है पोशाक का। कौन सी पोशाक पहनें जिसमें वे मंच पर होते हुए भी मंचीय न दिखें। धोती कुर्ता,पेंट शर्ट,टाई,कोट, नहीं नहीं सफारी सूट। इसमें श्रोता सम्भवतः नहीं कर पाएँगे हूट।जैसे तैसे सम्मेलन का समय आया।जीवन्त श्रोताओं और रसवन्त कवियों से पूरा पाण्डाल जगमगाया। अनजान संचालक महोदय ने उनकी शान में इतने कसीदे काढ़े कि शाहित्यकार महोदय भीतर ही भीतर से होने लगे गाढ़े। जैसे तैसे माइक पर आए। सामने श्रोताओं की घनघोर उपस्थिति देखकर चकराए। सोचने लगे कि इस जनता को क्या सुनाएँ। जूता सुनाता हूँ तो छाता छूट जाएगा ।छाता सुनाऊं तो चश्मा रूठ जाएगा। इसी कश्मकश में माइक पर चुपचाप खड़े रहे। इतनी देर में श्रोताओं के सब्र का बांध गया टूट ।इस बार भी शाहित्यकार महोदय पूरी तबीयत से किए गए हूट।इस घटना के पश्चात वे दोगुनी गम्भीर शाहित्यिकता ओढ़ने लगे हैं ।मंचीय कवियों को देख कर और अधिक जोर से नाक भौंह सिकोड़ने लगे हैं ।बन्द कमरे की गोष्ठियों में नित नए शाहित्यिक प्रतिमान गढ़ते हैं ।ये अलग बात है कि अकेले में आज भी ‘मंच पर सौ फीसदी सफल कैसे हों’ टाइप की किताबें पढ़ते हैं।