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कहानी लेख

अर्थार्जन -अर्थचिंतन की भारतीय दृष्टि
१) अर्थशास्त्र की परिभाषा- कौटिल्य एवं शुक्र.
२) धर्मण धर्माय च धम:
धन एवं अर्जन को महत्त्व व ग्राहक ने विघणट में धन के २८ समानार्थक (synomymous)शब्द दिए है।
यज्ञ: सर्व प्रयेजन सिद्ध: सोडवर्थ:
-नीतिवाक्यामृतं
वेदों में धन-धान्य, गाय-घोड़े आदि देने की अनेक प्रार्थनाएं
-दरिद्रम पातकं लोके। -महा.शान्ति
-धनमूला: क्रिया: सर्वायतनस्तस्थारणे मत:
-नारद
-धर्म / उचित मार्ग से धनार्जनने -चार पुरुषार्थ धनार्जन की आचार संहिता
-धर्म/ समाज कार्य में धन का सदुपयोग
-सबकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति एवं न्यायपूर्ण वितरण व्यवस्था
ईश्वर स्वामित्व की अवधारणा धर्माधारित (नैतिकता-आधारित) अर्थरचना->
धर्मेण धर्म:, धर्मेण धृति: धर्मेण
वृद्धि: अर्थशास्त्रास्तु बलवद। ….
राजहस्त समाहार सदसुहस्तसंविद
-पांचभाओं (धर्माय यससे
-दर्ष्ट पुर्त: अमृत एवं विघय
पंचमहामृत (देव. बुद्धि, पितृ. बहुत एवं यज्ञ)

कौटिल्य अर्थशास्त्रम -वाचस्पति ग़ैराला
आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता दण्ड निति श्वेति विद्या आन्वीक्षकी में संख्या, योग और लोकायत (नासिक दर्शन) का; नयी में धर्म-अधर्म का वार्ता में अर्थ-अनर्थ का और दंडनीति में सुशासन-दु:शासन का ज्ञान प्रतिपादित है।
-राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा की धर्म और कर्म मार्ग से भ्र्ष्ट न होने दे। अपनी प्रजा को धर्म और कर्म में प्रवृत्त रखने वका राजा लोक और प्रबोध में सुखी रहा है।
-कृषि पशुपाल्ये वाणिज्या च वार्ता।
-कठोर दण्ड (तीक्ष्ण दण्ड) देने वाले राजा से सभी प्राणी उद्धिग्न हो उठाते हैं, कमजोर दण्ड (मृदु दण्ड से प्रजा में अवहेलना होने बढ़ती है, अत: राजा समुचित दण्ड (यथार्ददण्ड:) देने वाला होना चाहिए।
-विद्या और निणय का हेतु इन्द्रियजय है अत: काम, क्रोध, लोभ, मान, पद हर्ष के त्याग से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
-अर्थ एवं प्रधान, अर्थ मूलो हि धर्मकायादिति (अर्थ प्रधान है क्योंकि धर्म और काम अर्थ पर ही निर्भर हैं। )
-राज्य द्वारा आमात्यों एवं मंत्रियों की नियुक्ति के बारे में पूर्ववर्ती आचार्यों का मत बता कर अपना मार्गदर्शन दिया है। समय-समय पर इनकी परीक्षा करते रहना चाहिए।