कहानी

रोचक संस्मरण

मेरी पहली विदेश यात्रा-डॉ कीर्ति काले

बात तब की है जब मैं पाँचवी या छठी कक्षा में रही हूँगी। छुट्टियों में आई (माँ)के साथ हम तीनों बहनें मामाजी के घर कुछ दिन रहने गयी हुईं थीं। मामाजी के घर रहना मुझे बहुत अच्छा लगता था।नानी जी,मौसी, और मामा तीनों ही खूब लाड़ लड़ाते थे।हाँ नानाजी का कड़क अनुशासन जरूर थोड़ा डरा देता था लेकिन फिर भी बहुत मज़ा आता था। मामाजी ग्वालियर के भूरे बाबा की बस्ती,छत्री बाजार में रहते थे और हम भागवत साहब का बाड़ा,बाई साहब की परेड, लक्ष्मी गंज में। बिल्कुल पैदल का रास्ता था। वैसे भी तब पाँच,सात किलोमीटर पैदल का रास्ता ही माना जाता था।
बाताने वाली बात ये है कि हम छुट्टियों में मामाजी के घर छुट्टियाँ बिताने आए हुए थे।एक दिन पता चला कि मामाजी अपने दोस्तों के साथ पिकनिक पर जा रहे हैं। मैं मामाजी के पीछे लग गई। मुझे भी ले चलो, मुझे भी ले चलो।सब लोग कहीं न कहीं जा रहे हैं।बस मैं ही कहीं नहीं जा रही।आप भी पिकनिक मनाने जा रहे हो। मैं तो आपके साथ चलूंगी। मामाजी मेरी जिद करने से परेशान हो गए।जिद्दी तो मैं शुरू से थी।जो बात ठान लेती थी फिर वो करके ही मानती थी। मेरे हठ की वजह से उन्हें निकलने में देर हो रही थी। उन्होंने बहुत समझाया कि वहाँ हम सब लड़के लड़के जा रहे हैं। कोई बच्चा नहीं जा रहा।तुम क्या करोगी वहाँ ? लेकिन मैं मानने को तैयार ही नहीं थी।तब मामाजी ने कहा कि तुम्हारे बाबा भी आज बाहर जाने वाले हैं।तुम उनके साथ चली जाओ। मुझे तो बाहर जाने से मतलब था। मैंने अपने दो फ्राक छोटे से झोले में ठूसे और चल पड़ी बाई साहब की परेड लक्ष्मी गंज।उस समय पैरो की फुर्ती पी टी उषा को भी मात दे रही थी। कहीं ऐसा न हो कि मेरे पहुँचने से पहले बाबा चले जाएं।इस आशंका ने तो पैरों में पर लगा दिए। एक गली फिर भैंस वाला मोड़ फिर नाले का पुल फिर चढ़ाव फिर शिव जी का मन्दिर फिर सँकरी गली फिर चौड़ी सड़क और फिर फाइनली बाई साहब की परेड और भावत साहब का बाड़ा आ ही गया।भागते-भागते पहुँच ही गई। हाँफने तक का समय नहीं था।बाड़े में आते ही बाँईं ओर अपने घर में धड़धड़ाते हुई घुस गई।बाबा मुझे और मेरे इस अवतार में देखकर पहले तो आशंकित हुए फिर कड़ककर पूछा- तुम यहाँ कैसे? सब ठीक तो है न ?
मैंने सारी कहानी बिना साँस लिए जल्दी जल्दी सुना दी और ये भी घोषणा कर दी कि मैं आपके साथ चलूंगी।बाबा ने कहा कि वे शहर से बाहर जा रहे हैं इसलिए मुझे साथ में नहीं ले जा सकते। मुझे वापस मामाजी के यहाँ जाना होगा। लेकिन मैं कब मानने वाली थी। मैं तो अड़ ही गई।बाबा ने बहुत तरह से समझाया लेकिन मुझे नहीं समझना था सो नहीं समझी।बाबा ने अपने वीआईपी के ब्रीफकेस में चार पाँच जोड़ी कपड़े जमाए। मेरे साथ बाहर आए।दरवाजे को ताला लगाया।चाभी बाई (दादी) को दी और मुझे सख्ती से बोले कि अब तुम मामा के घर जाओ। मैंने रुंआसे मुँह से सिर हिला दिया।बाबा और मैं साथ साथ मेन गेट से बाहर निकले।बाबा दाहिनी ओर डॉ कमल किशोर के अस्पताल वाले रास्ते पर चल पड़े मुझे मामाजी के घर के लिए बाईं ओर जाना था लेकिन मैं बाबा के पीछे पीछे चलती गई।हाथ में छोटा सा झोला और झोले में दो फ्राक बस।बाबा बहुत जल्दी जल्दी चल रहे थे और मैं उनके पीछे बिना आवाज़ किए लगभग दौड़ते हुए चली जा रही थी।बस एक ही जिद थी कि आज कहीं न कहीं जाना है। मामाजी नहीं ले गए और बाबा भी नहीं ले जा रहे। नुक्कड़ पर बाबा की नजर थोड़ी पीछे घूमी तो मुझे देखकर आश्चर्यचकित हो गए। थोड़ा कड़ककर बोले कि वापस जाओ। पीछे पीछे क्यों आ रही हो?जाओ वापस।मैं वापस जाने के लिए घूम गई लेकिन जैसे ही बाबा आगे बढ़े मैं फिर से उनके पीछे-पीछे चलने लगी। थोड़ी दूर कमानी पुल पर फिर बाबा ने घूमकर पीछे देखा तो मैं पीछे पीछे आती दिखी।अब वो समझ गए कि मैं वापस नहीं जाने वाली।तब भी उन्होंने एक चांस लिया और कहा कि वे बहुत दूर दूसरे देश में जा रहे हैं। इसलिए मुझे नहीं ले जा सकते।जब वहाँ से लौटेंगे तब जरूर कहीं ले चलेंगे। लेकिन मुझे तो आज ही जाना था। मैं फिर उनके पीछे-पीछे चल दी। आखिरकार बाल हठ जीत गया।बाबा मुझे साथ में ले जाने के लिए राजी हो गए।हम ग्वालियर रेलवे स्टेशन आए ट्रेन में बैठे।ट्रेन में बैठकर बाबा ने बताया कि हम नेपाल जा रहे हैं।ट्रेन से पहले गोरखपुर जाएँगे फिर वहाँ से नेपाल। मुझे इससे कोई मतलब नहीं था कि बाबा कहाँ जा रहे हैं मुझे तो बस आज के दिन कहीं जाना था।ट्रेन में बैठे बैठे मन ही मन मैं मामाजी को चिढ़ा रही थी।कि तुम नहीं ले गए तो क्या हुआ मैं अपने बाबा के साथ आ गई।टिल्ली लिल्ली,टिल्ली लिल्ली।
ट्रेन से अगले दिन शाम को हम गोरखपुर पहुँचे।वहाँ रात्री विश्राम किया।सुबह गोरखनाथ जी का मठ देखा।बाई (दादी) से मछेन्द्रनाथ और गोरखनाथ जी की कहानी कई बार सुनी थी। इसलिए गोरखनाथ जी का मठ घूमने में मज़ा आया।ढ़ोलीबुआ महाराज से भी इनकी कथा सविस्तार सुन रखी थी।
अगले दिन एक बस में बैठकर नेपाल के लिए रवाना हुए।भारत नेपाल बॉर्डर पर चैकिंग हुई।सारे यात्रियों को पहली बस में से उतारकर दूसरी बस में बिठाया गया। फिर पहाड़ी घुमावदार रास्ते से होते हुए बस पोखरा पहुँची।पोखरा में दाँत किटकिटा देने वाली सर्दी थी। और मेरे पास तो कोई ऊनी कपड़ा या स्वेटर भी नहीं था। जहाँ हम ठहरे थे वहाँ से माउन्ट एवरेस्ट दिखाई दे रही थी।माउन्ट एवरेस्ट दुनिया की सबसे ऊँची चोटी है। इसके बारे में मैंने बालभारती के पाठ में पढ़ा था। मेरे उत्साह का ठिकाना नहीं था।जो किताब में पढ़ा उसे मैं देख रही हूँ। मुझे तो ये सब किसी खुल जा सिम सिम से कम नहीं लग रहा था। पहले गोरखनाथ मठ फिर माउंट एवरेस्ट।बाबा भी अब मेरे जबरन साथ में आ जाने से गुस्सा नहीं थे।अगले दिन सुबह पोखरा से काठमांडू जाने के लिए बस में बैठे। फिर गोल गोल घुमावदार रास्ते पर बस चल पड़ी। नेपाल में पहली बार मैंने छोटे छोटे बच्चों को सिगरेट पीते हुए देखा। बहुत गरीब लोग देखे पोखरा से काठमांडू के रास्ते में।सारे लोग बदबू मारते हुए।
कई कई दिनों नहाना तो क्या नहाने के बारे में सोचा तक नहीं हो जैसे। इतनी गरीबी मैंने पहली बार देखी।मन में लगा कि मैं बड़ी होकर कुछ ऐसा करूँगी कि कोई गरीब नहीं रहे। मैं प्रधानमंत्री बन जाऊंगी।क्योंकि प्रधानमंत्री सब कुछ कर सकता है। ठीक है मैं प्रधानमंत्री ही बनूंगी।
अगले दिन हम काठमांडू पहुँचे। काठमांडू साफ सुथरा शहर दिखा।यहाँ लोग भी उतने गरीब नहीं थे।बाबा और मैं बाबा के एक दोस्त के घर गए। वहीं ठहरे।दरअसल मेरे बाबा डाकटिकिट कलेक्शन का काम करते थे। और इसी सिलसिले में नेपाल आए थे। पशुपति नाथ जी के दर्शन किए। काठमांडू घूमा। चार पांच दिन काठमांडू रुके फिर वापस पोखरा, गोरखपुर होते हुए ग्वालियर आ गए। मुझे तो सबसे जल्दी थी मामाजी को आमने-सामने जीभ निकालकर चिढ़ाते हुए टिल्ली लिल्ली दिखाने की।