भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में शाश्वत जीवन मूल्य : डॉ० बजरंग लाल गुप्ता

प्रेरणा

जीवन मूल्य का आधार होती है जीवन दृष्टि और फिर जीवन मूल्यों से बनते हैं जीवनादर्श । इस प्रकार जीवन दृष्टि, जीवन मूल्य और जीवनादर्श अन्योन्याश्रित हैं और एक अर्थ में परस्पर अंतर्भूत भी हैं । इस प्रकार कई बार इनके बीच कोई कठोर स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना भी कठिन हो जाता है । अथवा दूसरे शब्दों में ये एक-दूसरे के साथ इतने घुले-मिले होते हैं कि कभी-कभी इनके बीच का अन्तर ही समाप्त होकर ये समानार्थक हो जाते है । जीवन मूल्य व्यक्ति व समाज के व्यवहार एवं जीवन को निर्देशित एवं नियमित करते हैं । कार्य को दिशा व प्रेरणा देते हैं । इतना ही नहीं जीवनमूल्य व्यक्ति और समाज को पहिचान भी देते हैं । कई बार कुछ लोग जीवन मूल्यों को नकारात्मक जीवन मूल्य एवं सकारात्मक जीवन मूल्य के रूप में भी विभाजित करते हैं । नकारात्मक जीवन मूल्य समाज में दुराचार, अनाचार, अनीति, अन्याय एवं अत्याचार का कारण बनते हैं । समाज के दुर्जन एवं दुष्ट व्यक्ति ही ऐसे नकारात्मक जीवन मूल्यों को अपनाते हैं । और इस कारण वे समाज के लिए सब प्रकार से हानिप्रद होते हैं । दूसरी और सकारात्मक जीवनमूल्य से तात्पर्य सदाचार एवं न्यायसंगत जीवन मूल्यों से होता है और वे सदैव समाज के लिए हित संवर्धक होते हैं । सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि सकारात्मक जीवन मूल्य का अर्थ है नैतिक मानदण्ड । यहाँ हम इन सकारात्मक जीवन मूल्यों की ही चर्चा करेंगे । वास्तव में तो ‘जीवन मूल्य’ शब्द सकारात्मक जीवन मूल्यों के लिए ही प्रचलित होने से वह इस अर्थ में रूढ़ हो गया है।
जीवन मूल्यों का वर्गीकरण एक और भी प्रकार से किया जाता है : सामयिक जीवन मूल्य एवं शाश्वत जीवन मूल्य । सामयिक जीवन मूल्यों से तात्पर्य उन जीवन मूल्यों से है जो देश, काल व परिस्थिति सापेक्ष होते हैं । इसीलिए इन्हें कई बार समकालीन जीवन मूल्य भी कहा जाता है । ये देश या स्थान विशेष, समय विशेष एवं परिस्थिति विशेष में ही उपयोगी एवं प्रासंगिक होते हैं । समय, स्थान व परिस्थिति में परिवर्तन होने पर इनमें भी परिवर्तन होता है, या परिवर्तन होना चाहिए । यदि कोई समाज देश , काल के अनुसार इन जीवन मूल्यों में परिवर्तन नहीं करता और पुराने जीवन मूल्यों से ही चिपका रहता है तो उस समाज का विकास

रुक जाता है और उसमें जड़ता आ जाती है । दूसरी और, शाश्वत जीवन मूल्य वे होते हैं जो देश, काल, परिस्थिति के परे सब स्थितियों में और सदैव प्रासंगिक होते हैं । इनको बार बार बदला नहीं जाता और बदला भी नहीं जाना चाहिए । ये पुरातन होते हुए भी सदैव नूतन बने रहते हैं, अत: इनमें निरन्तरता का प्रवाह अबाध गति से चलता रहता हैं, इसलिए ये समीचीन भी रहते हैं । हाँ इतना अवश्य है कि देश, काल व परिस्थिति के अनुसार इनकी व्याख्या एवं प्रयोग का विवेक विकसित करना होता है । यहाँ हम भारतीय सांस्कृतिक जीवनधारा के ऐसे ही कुछ जीवन मूल्यों की चर्चा करेंगे ।
भारतीय जीवन मूल्य परम्परा में खण्डित यांत्रिक विश्व दृष्टि के स्थान पर एकात्म सर्वंकश विश्व दृष्टि को स्वीकार किया गया है । अब तो विज्ञान की नवीनतम खोजों ने भी सिद्ध कर दिया है कि ब्रह्माण्ड के अलग-अलग दिखने वाले विभिन्न हिस्से एक-दूसरे के साथ गहरे एवं घनिष्ठ रूप से जुड़े एवं गुंथे हुए ही नहीं है अपितु एक-दूसरे के भीतर अंतर्भूत हैं । इसी में से अविभाज्य समग्रता ( unbroken wholeness) की परिकल्पना का उदय हुआ है । इसीलिए तो भारतीय मनीषि ‘यत्पिण्डे तत्ब्रह्माण्डे, यत्ब्रह्माण्डे तत्पिण्डे’ (अर्थात् जो एक अणु में है वही ब्रह्माण्ड में है और जो ब्रह्माण्ड में है वही एक अणु में है ) का उद् घोष करते रहे हैं । हमारा विश्वास रहा है कि सम्पूर्ण चराचर जगत में एक ही तत्त्व व्याप्त है – ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ । इसी आधार पर यह कहा गया कि व्यष्टि, समष्टि और सृष्टि ये अलग-अलग और स्वतंत्र इकाइयाँ नहीं हैं, अपितु एक ही तत्त्व भिन्न भिन्न स्तरों पर अपने को प्रकट किये हुए हैं । अत: इनके बीच एकलयता एवं एकरसता बनी रहनी चाहिए ।
भारत ने प्रकृति के प्रति मातृत्त्व व देवत्त्व भाव दृष्टि रखने पर जोर दिया हैं । इसीलिए तो हमने धरती माता, गौमाता, तुलसी माता, गंगा माता, पहाड़ देवता, नदी देवता, नाग देवता आदि सम्बोधन देकर प्रकृति के प्रति आदर एवं आत्मीयता का भाव रखकर व्यवहार किया है । हम प्रकृति को अपना विरोधी व शत्रु नहीं मानते, अपितु उसके प्रति मित्र भाव रखते हैं । कोई अपनी माँ से कैसे प्रतियोगिता कर सकता है ? इसीलिए हम प्रकृति के शोषण का नहीं अपितु इसके दोहन का विचार करते हैं । इसी को ध्यान में रखकर हमें अपना समूचा जीवन व्यवहार और

तकनीक- तकनोलोंजी का निर्धारण करना चाहिए । हमारा मानना है कि मनुष्य, प्रकृति व पर्यावरण अविभाज्य हैं, अत: मनुष्य को प्रकृति के साथ तालमेल करते हुए रहना चाहिए । प्रकृति के विभिन्न अवयवों भूमि, जल, वायु, अग्नि, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों को मिलाकर प्रकृति-चक्र, एक जीवन धारण प्रणाली बनती हैं जो इन सबके बीच अन्योन्याश्चित सम्बन्ध को प्रकट करती है । इस प्रकृति चक्र का नेटवर्क ही आज कि भाषा में जैव विविधता हैं । हम इस प्रकृति चक्र को नष्ट न करें तभी हम प्रदुषण की समस्या का समाधान कर पर्यावरण संरक्षण कर पायेंगे ।
भारतीय विचार परम्परा में मनुष्य के प्रति देखने का भी अपना एक विशेष दृष्टिकोण रहा है । हमने मनुष्य को सामाजिक पशु, राजनैतिक पशु, यांत्रिक मानव, जैविकीय इकाई, वैज्ञानिक मानव, आर्थिक मानव, आदि के रूप में नहीं देखा है । हमने तो उसे सर्वव्यापक ब्रह्म के स्वरूप में शरीर, मन बुद्धि, आत्मा, के समुच्चय एकात्म मानव के रूप में माना है । इस विचार परम्परा के अनुसार मनुष्य शरीर व बुद्धि का मिश्रण मात्र ही नहीं है अपितु उसमें आत्मा की शक्ति भी है जो शुद्ध, कल्याणकारक एवं दैवीय गुणों से परिपूर्ण है । अत: मनुष्य जहाँ अपने हृदय की दुर्बलताओं, मन की कमजोरियों एवं स्वार्थ वृत्तियों के कारण समाज में अनेक समस्याओं को जन्म देता है वहीँ यदि उसके अन्तस् की सद्-वृत्तियों एवं देवत्त्व को जगाने एवं बढ़ाने का प्रयास किया जाए तो वह सब समस्याओं का सुन्दर-सुखकारक हल प्रस्तुत कर सामाजिक कल्याण का वाहक भी बन सकता है ।
भारतीय चिंतन एक समग्र, समन्वित, संतुलित एवं समन्वयात्मक जीवन मूल्य की बात कहता रहा है । हमारा मानना है कि विविधता संसार का सत्य एवं सौन्दर्य दोनों है । हम विविधता में एकता का दर्शन करते रहे हैं । हमारी मान्यता रही है कि एक का ही विविध रूपों में प्रकटीकरण होता रहा है —एकोऽहं बहुस्याम: । इसी में से विविधरूपी एवं बहुमुखी दृष्टिकोण, अविरोध भाव प्राप्त करने की पद्धति, बहुधाभाव की स्वीकृति, बहुधा में एकत्व की पहचान व खोज आदि जन्म लेते हैं । इसी जीवन मूल्य का परिणाम है कि हमारे यहाँ पूजा-पद्धति का स्वातंत्र्य रहा है और हमारा समाज व् परम्परा अनेक मत मतान्तरों का अद्भुत संगम के रूप में

प्रतिष्ठित रहे हैं । ‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति’, यह भारतीय जीवन मूल्यों का अन्तर्यामी सूत्र रहा है और इसी में से ‘स्या्दवाद के सिद्धांत कि उत्पति हुई है । अनेक चिन्तन धाराओं को मान्य कर उनके भीतर अंतनिर्हित समान तत्त्वों को खोज लेना यह सामाजिक एकता-समरसता के लिए आवश्यक है । साथ ही विभिन्नताओं-विविधताओं में से कटुता व संघर्ष उत्पन्न न होने देना ही भारत की सामाजिक दृष्टि रही है । हम वर्ग-संघर्ष में नहीं बल्कि वर्ग-सहयोग एवं वर्ग-पूरकता के पक्षपाती हैं । हमारी निष्ठा है कि सम्पूर्ण समाज के विकास के लिए सभी वर्ग आवश्यक एवं उपयोगी होते हैं । हम कभी भी किसी एक वर्ग के हितों की बलि चढ़ाकर किसी दूसरे वर्ग को बढ़ावा देने के पक्षपाती नहीं रहे हैं । इसीलिए हमने सदैव समाज के विभिन्न वर्गों व हितों के बीच सुंदर-सुखद सुमेल एवं समन्वय बनाने का प्रयास किया है । इस प्रकार इस भारतीय जीवन मूल्य के प्रकाश में हमें ऐसी सामाजिक संरचना विकसित करने का प्रयास करते रहना चाहिए जिसमें धन व धर्म, भोतिकता एवं आध्यात्मिकता, संचय व त्याग, अर्जन और वितरण, व्यष्टि और समष्टि, निजी हित एवं सार्वजनिक हित, स्वतन्त्रता एवं नियमन आदि अनेक तत्त्वों के बीच उचित समन्वय स्थापित किया जा सके ।
हमारे जीवन मूल्यों में हमने सबसे ज्यादा जोर आचार प्रधान जीवन दृष्टि एवं जीवन व्यवहार पर दिया है । इस दृष्टि से हमारी परम्परा में पति-पत्नि, माता-पिता, भाई-बहिन, महिला-पुरुष के रिश्तों की मर्यादाओं, सत्य, शील ,दया, पवित्रता, दान परोपकार, सेवा, संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग-समर्पण, संतोष, समदृष्टि आदि सदगुणों को अपनाने पर काफी बल दिया गया है । इन गुणों के कारण ही हमारा चरित्र बनता है ।
आज आवश्यकता है कि हम अपने जीवन मूल्यों को ठीक से समझें और जीवन में अपनाने का प्रयास करें । यह हो सकता है कि आज के सुविधाभोगी वातावरण में इन जीवन मूल्यों को अपनाना कठिन लगे अथवा प्रारम्भ में कुछ कष्ट उठाना पड़े । किन्तु यदि हम दृढ संकल्प के साथ इन जीवन मूल्यों को अपनाना प्रारम्भ कर देंगे तो फिर ये हमें सहज, सरल, स्वाभाविक एवं सुखद लगने लगेंगे । इससे हमें आत्मसंतोष का अनुभव होने लगेगा और फिर हम व्यक्तिगत एवं सामाजिक अनेक सवालों एवं समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकने कि क्षमता भी प्राप्त कर सकेंगे ।