बेचैनियां

कविता मंगल विमर्श

अजब बेचैनियां हैं, इब्तिला है,

यही दरअस्ल उल्फ़त का सिला है।

सफ़र में मैं अकेला तो नहीं हूं,

मेरे हमराह अब इक क़ाफ़िला है।

ख़ुदा की ख़ूबसूरत नेअमतों में,

ये सांसों धड़कनों का सिलसिला है।

हमारी रूह ज़िंदा है अज़ल से,

बदन तो अस्ल में फ़ानी मिला है।

उदासी ने बुझा कर रख दिया था,

तेरे आने से ये चेहरा खिला है।

सभी पागल मुझे कहने लगे हैं,

मैं गुम हूं जब से तू मुझको मिला है।

ज़मी पर मैं मज़े से रह रहा हूं,

मकां मेरा कहां नौ मंज़िला है।

यक़ीनन है असर ये ज़लज़ले का,

यक़ीं यूं ही नहीं “हशमत” हिला है।

हशमत भारद्वाज 

दिल्ली

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