पेंशन (लघु कथा) 

कहानी मंगल विमर्श

पेंशन (लघु कथा)

“अम्मा! तुम भी ना… कर दी ना देर। तुम्हें तो समझाना ही बेकार है। एक दिन घंटी नहीं डोलाती तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? जानती हो न! बैंक में कितनी लंबी लाइन लगी रहती है। तो भी बैठ गई भोग लगाने..”

       माँ तो बस दम साधे निर्विकार भाव से बैंक की सीढ़ियों पर सुन्न खड़ी है। एक हाथ को रेलिंग के सहारे और दूसरे हाथ को अपनी छोटी-सी लाठी का सहारा देती हुई अपने को ऊपर की ओर ढकेलती हुई किसी तरह चढ़ी जा रही थी।

     कई बार नजरें ऊपर उठा कर बड़ी उम्मीद से बेटे की ओर देखती। शायद चार कदम पीछे उतरकर उसका हाथ पकड़ ले। लेकिन वह जानती थी हर बार की तरह आज भी बेटे से उम्मीद करना बेकार है।

       सचमुच आज बैंक में बहुत भीड़ थी। सोमवार का दिन था और कई दिनों के बाद बैंक खुला था तो भीड़ होना जायज़ भी था।

       घंटों लाइन में खड़े होने के बाद रुपये मिले। माँ उन रुपयों को जी भर देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाई। संज्ञा शून्य सी न जाने कब तक खडी़ रहती। बेटे की बातों ने जैसे उसे नींद से उठाया-

     “ये बीस रुपये रख लो माँ! बस पकड़ लेना। इधर-उधर मत चली जाना कथा कहानी बतियाने। कंडक्टर से बोल देना अच्छे से चढ़ा देगा और उतार भी देगा। दस रुपये से ज्यादा भाड़ा मत दे देना पिछली बार की तरह। तुम तो एकदम से सठिया गई हो।”

     माँ समझ गई थी हर बार की तरह आज भी उसके पेंशन से बहू की पाजेब और बच्चों की मिठाईयाँ आएंँगी और हर बार की तरह वह आज की रात बिना कुछ खाए ही काटेगी।

    उसके पैर घिसटते हुए बस स्टैंड की ओर बढ़े जा रहे थे।

* डॉ शिप्रा मिश्रा

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