अंत ही आरंभ है

कविता मंगल विमर्श

अंत ही आरंभ है, यही सत्य जीवन अवलंब है। 

निराशा में आशा का दिव्य ज्योति स्तंभ है। 

टूटने नहीं देता  जगाता आस,

 नव सृजन का शाश्वत विश्वास

पतझड़ के पीत पल्लवों से झांकता 

बसंत का मदमाता उल्लास। 

रात का अंधकार कहाँ हमेशा ठहर पाता है, 

नवप्रभात सूरज जो चीर-मुस्कान सजाता है। 

बीज धरा की गहराई में जा  अपना रूप गंवाता है

तब नव सृजन नन्हा पौधा मंद- मंद मुस्काता है। 

काया नश्वर, माया नश्वर, नश्वरता जीवन का परम सत्य

मृत्युपरान्त नवजीवन, नव सृजन कर्मपथ मे निहित अकाट्य तथ्य। 

मौसम का बदलना, कालचक्र  का निरंतर चलना

धर्म की लड़ाई में अर्जुन बनकर  है हमें लड़ना।

धर्म की रक्षा के लिए दुर्जन स्वजनों का अंत अपरिहार्य

अंत अस्ति प्रारंभ गीता ज्ञान, अंगीकृत कर हो दैनिक कार्य। 

मीना माहेश्वरी

रीवा मध्यप्रदेश