शर्त सारी मान बैठे

कविता मंगल विमर्श

शर्त सारी मान बैठे

शर्त सारी मान बैठे जिंदगी तेरे लिए।
क्यों दवा तू बन सकी ना ग़म भुलाने के लिए।।

जाल बुनती है सलौना क्यों दिखाती है सपन।
क्यों सताती क्यों लुभाती क्यों बढ़ाती है तपन।
भाव दिन दूना बढाती भाव पाने के लिए।

शर्त सारी मान बैठे जिंदगी तेरे लिए।।

हार पहने इंद्रधनुषी साज़ झिलमिल सुर खिले।
पर्वतों से सुनहली फिर स्वर्ण आभा जा मिले।
छाँव देती है कभी क्या धूप देने के लिए।

शर्त सारी मान बैठे जिंदगी तेरे लिए।।

दूर ही से है लुभाती पास आती ही नहीं।
असलियत तो यह कभी अपनी दिखाती ही नहीं।
चुक रहें हैं किश्त जैसे ग़म चुकाने के लिए।

शर्त सारी मान बैठे जिंदगी तेरे लिए।

वक्त ने पाया कहाँ कुछ सार के क्या मायने।
बह गयी ज्यों शुभ्र सरिता शिव समाधी साधने।।
मिट गये लाखों सितारे दिन दिखाने के लिये।
शर्त सारी मान बैठे ज़िंदगी तेरे लिए ।।

सुखमिला अग्रवाल’भूमिजा’
©️®️ स्वरचित एवं मौलिक
मुंबई