नवगीत

कविता मंगल विमर्श

याद तुम्हारी जैसे कोई,कंचन कलश भरे।
जैसे कोई किरण अकेली,पर्वत पार करे।।

जैसे तपती जेठ दुपहरी, बादल नभ छाए।
भाद्र मास की रात अमावस, बिजली तड़काए।।
याद तुम्हारी जैसे कोई, कंचन कलश भरे।
जैसे कोई किरण अकेली, पर्वत पार करे।।

कुछ मीठी सी यादें तेरी, कुछ मन की उलझन।
हर पल तेरी बातें करतीं, मन का सम्मोहन।
आकुल व्याकुल मन मेरा अब, नैनन अश्क भरे।
जैसे कोई किरण अकेली,पर्वत पार करे।।

रिमझिम वर्षा की ये बूँदे, अधरों को चूमें।
आवारा ये पवन झकोरे, देख देख झूमें।।
तन-मन दोनों भींग रहे हैं, समय नहीं गुजरे।
जैसे कोई किरण अकेली, पर्वत पार करे।।

करने दो मन के पंछी को, उन्मुक्त किल्लोल।
साथ यही देते विपदा में, निष्ठता अनमोल।।
शरद ऋतु अगहन की रातें, नभ से ओस झरे।
जैसे कोई किरण अकेली, पर्वत पार करे।।

              डॉ0 प्रियम्बदा मिश्रा, नोएडा